

दिसंबर के आख़िर में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सेंट्रल दिल्ली में मौजूद वाल्मीकि मंदिर पहुंचे. मंदिर में उन्होंने पूजा-अर्चना की और नई दिल्ली विधानसभा सीट पर अपने प्रचार अभियान की शुरुआत की.
केजरीवाल नई दिल्ली सीट पर चौथी बार चुनावी चुनौती का सामना कर रहे हैं. वाल्मीकि मंदिर इसी नई दिल्ली विधानसभा सीट के अंतर्गत आता है. हर बार नामांकन से पहले केजरीवाल इस मंदिर में जाते हैं.
मंदिर से कुछ मीटर की दूरी पर वाल्मीकि बस्ती है. बस्ती में वाल्मीकि समाज के कुछ लोग बैठे हैं और चुनावी चर्चा कर रहे हैं. चर्चा के बीच एक युवा पुष्पेंद्र कहते हैं, “अबकी बार वाल्मीकि वोट कटेगा. कांग्रेस में भी जाएगा, बीजेपी में भी जाएगा और आम आदमी में भी जाएगा.”
बातचीत को बीच में रोकते हुए एक बुज़ुर्ग ने कहा कि यहां बच्चों को रोज़गार न मिलना सबसे बड़ी समस्या है.
इसी वाल्मीकि बस्ती में अरविंद केजरीवाल ने पार्टी के दूसरे नेताओं के साथ साल 2013 में झाड़ू लगाकर अपने चुनाव चिह्न को लॉन्च किया था. प्रतीकों की राजनीति में केजरीवाल के इस चुनाव चिह्न को बीते दो चुनाव में दलित मतदाताओं का साथ मिला. इसमें वो तबका भी है, जो साफ़-सफ़ाई के काम से जुड़ा है. इस वर्ग के लिए झाड़ू की अपनी अहमियत है.
2013 के चुनाव में दलित मतदाताओं ने नई बनी आम आदमी पार्टी का साथ दिया. इस चुनाव में 12 आरक्षित सीटों में से नौ सीट आप ने जीतीं. पिछले दो चुनावों में आप ने सभी बारह सीटों पर क्लीन स्वीप किया.
1993 से लेकर 2020 तक सात विधानसभा चुनाव में दलितों के लिए रिज़र्व सीटों पर जिसने बढ़त हासिल की, उसकी सरकार बनी.
दलित मतदाता क्या कह रहे हैं?

वाल्मीकि मंदिर से क़रीब 10 किलोमीटर दूर करोल बाग में आंबेडकर बस्ती है. करोल बाग विधानसभा सीट एक आरक्षित सीट है.
बस्ती की शुरुआत में साफ़-सफ़ाई नज़र आती है लेकिन गलियों के अंदर जाने पर गंदगी दिखाई देने लगती है. ऐसी ही एक गली में मेरी मुलाक़ात ओमवती से हुई. ओमवती अपनी झुग्गी के बाहर ओवरफ़्लो हो रही नाली को साफ़ कर रही थीं.
सफ़ाई करने वाले लोग नहीं आते हैं क्या?
जवाब में ओमवती बताती हैं, “आए दिन हमें ख़ुद यह नाली साफ़ करनी पड़ती है. इन नेताओं का क्या सुख है? हमारा तो बस इतना कहना है कि हमारी पक्की नाली बनवाओ. नहीं तो हम लोग वोट ही नहीं डालेंगे.”
बिजली, पानी और जल निकासी बस्ती के मूल मुद्दे हैं लेकिन यहां अपनी झुग्गी को लेकर भी लोग चिंतित दिखाई पड़ते हैं.
75 साल की सीमा देवी कहती हैं, “हम चाहते हैं कि जहां झुग्गी वहीं मकान मिले. हम दूर नहीं जाएंगे. जब हमारी दो रोटी का काम ही इधर है तो दूर जाकर क्या करेंगे. जो हमें फ़ायदा देगा हम उसके साथ हैं. केजरीवाल को वोट देंगे.”

राजधानी दिल्ली में 600 से ज़्यादा झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी और 1700 से ज़्यादा कच्ची कॉलोनी हैं. इनमें दलितों की एक बड़ी आबादी रहती है.
इन झुग्गियों को लेकर अक्सर बीजेपी और आम आदमी पार्टी आमने-सामने आ जाते हैं. आप बीजेपी पर झुग्गी-बस्ती तोड़ने का आरोप लगाती है और बीजेपी ‘जहां झुग्गी वहीं मकान’ के नारे से इस आरोप का काउंटर करती है.
आंबेडकर बस्ती से कुछ दूरी पर सदर बाज़ार विधानसभा में आने वाली दया बस्ती है. यहां दाख़िल होते ही आंबेडकर की मूर्ति, सड़क पर गंदगी और घरों पर बहुजन समाज पार्टी के झंडे दिखाई देते हैं. इस बस्ती में जाटव समाज के लोगों की संख्या अधिक है.
रमेश कुमार का परिवार लगभग तीन दशक पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आकर दया बस्ती में बसा था.
दिल्ली में दलितों की लीडरशिप के सवाल पर रमेश कुमार कहते हैं, “दिल्ली में कोई बड़ा दलित नेता नहीं है. जब हमारा नेता नहीं है तो हमारी बात कैसे पहुंचेगी. हमें दबा दिया जाता है. दलित की कोई ज़िंदगी नहीं है साहब. ये तो बस जी रहा है.”
जिसके साथ दलित, उसकी बनी सरकार

साल 1993 के चुनाव में 70 में से 13 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थीं. भारतीय जनता पार्टी ने 13 में आठ सीट जीतीं और सरकार बनाई.
अगले चुनाव यानी 1998 में इन सीटों पर कांग्रेस ने बढ़त बनाई. कांग्रेस ने 12 आरक्षित सीट जीतकर दिल्ली में सरकार बनाई. अगले 15 सालों तक दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार चली.
इस दौरान कांग्रेस ने 2003 में 10 और 2008 में नौ आरक्षित सीट जीतीं. हालांकि, 2008 में परिसीमन के बाद रिज़र्व सीटों की संख्या 13 से घटाकर 12 कर दी गई थी.
ये 12 सीटें हैं- बवाना, सुल्तानपुर माजरा, करोल बाग, मंगोलपुरी, मादीपुर, पटेल नगर, आंबेडकर नगर, देवली, त्रिलोकपुरी, कोंडली, सीमापुरी और गोकलपुर.
2013 के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने नौ आरक्षित सीट जीतीं और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई. फिर 2015 और 2020 में आप ने सभी बारह रिज़र्व सीट जीतीं.
12 आरक्षित सीटों के अलावा राजेंद्र नगर, शाहदरा, तुगलकाबाद, चांदनी चौक, आदर्श नगर और बिजवासन समेत 18 ऐसी सीटें हैं जहां दलित मतदाताओं की अच्छी-ख़ासी आबादी है.
2011 की जनगणना के मुताबिक़, दिल्ली में लगभग 17 फ़ीसद दलित आबादी है. इस आबादी में दलितों की कुल 36 जातियां हैं. इनमें जाटव, वाल्मीकि, धोबी, रैगर, खटीक, कोली और बैरवा प्रमुख हैं. आबादी के हिसाब से दिल्ली के अनुसूचित जाति वर्ग में जाटव सबसे बड़ी जाति है और जाटव के बाद वाल्मीकि बड़ी जाति है.

दलित दिल्ली की आबादी और राजनीति दोनों में अपना प्रभाव रखते हैं. लेकिन क्या उनका प्रतिनिधित्व भी इसी हिसाब से है? 20 फ़ीसद दलित आबादी वाले उत्तर प्रदेश में मायावती चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन 17 फ़ीसद दलित आबादी वाले दिल्ली को अब तक कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं मिला है.
डॉ. विवेक कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल सिस्टम्स में प्रोफ़ेसर हैं.
दिल्ली में दलित राजनीति पर प्रोफ़ेसर विवेक कुमार बताते हैं, “दिल्ली जैसे महानगर में दलित अस्मिता की राजनीति के तहत दलितों को चिह्नित करना मुश्किल है. जो 17 प्रतिशत आबादी है वो दिल्ली में बिखरी हुई है. संगठित रूप में इनकी आबादी नहीं है. अगर यह आबादी संगठित नहीं है तो 17 प्रतिशत दूसरों की सीट में इज़ाफ़ा करवा सकते हैं लेकिन राजनीतिक रूप से ख़ुद के लिए बड़ी पहचान नहीं बन सकते हैं. ये अलग-अलग विधानसभाओं में बिखरे हैं इसलिए मिलकर जीत नहीं पाते हैं.”
2008 में बहुजन समाज पार्टी ने अपने प्रदर्शन से सबका ध्यान खींचा था. तब पार्टी ने दिल्ली में 14 प्रतिशत वोट हासिल किए थे और दो सीट (बदरपुर और गोकलपुर) जीती थीं. गोकलपुर आरक्षित सीट है. यह वह दौर था जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं और लोकसभा में बीएसपी के 19 सांसद थे.
2008 के बाद से पार्टी के प्रदर्शन में लगातार गिरावट आई है. 2020 के चुनाव में बीएसपी को एक फ़ीसद से भी कम 0.71 प्रतिशत वोट मिले थे.
अशोक भारती दलित संगठनों के राष्ट्रीय मंच नेशनल कॉन्फे़डरेशन ऑफ दलित ऑर्गेनाइजे़शन (नैकडोर) के चेयरमैन हैं.
अशोक भारती कहते हैं, “महंगाई और बेरोज़गारी दलित मतदाताओं के लिए सबसे बड़े मुद्दे हैं. केजरीवाल की मुफ़्त वाली योजनाएं महंगाई में राहत देती हैं लेकिन स्थाई समाधान नहीं दे पातीं. दिल्ली सरकार में सरकारी नौकरियों को ख़त्म कर ठेकेदारी प्रथा आ गई है. इससे दलित समाज की पहुंच भी इन नौकरियों से दूर हो गई है क्योंकि यहां पब्लिक सेक्टर की तरह आरक्षण नहीं है.”
उनका मानना है कि अगर उम्मीदवार मज़बूत है तो कांग्रेस को दलितों का साथ मिल सकता है.
वह कहते हैं, “प्रतिनिधित्व को लेकर केजरीवाल सरकार का दिल्ली और पंजाब दोनों जगह रवैया सही नहीं है. दलित समाज राहुल गांधी की हिस्सेदारी वाली बातों को गंभीरता से ले रहा है लेकिन विधानसभा में उम्मीदवार मज़बूत होगा तभी कांग्रेस को फ़ायदा होगा. ऐसा नहीं होने पर दलित समाज अरविंद केजरीवाल के साथ रहेगा.”
ढाई साल में तीन दलित मंत्री बदले

साल 2022 में अक्तूबर का महीना दिल्ली में दलित राजनीति के लिए निर्णायक था. तब आप सरकार में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने एक कार्यक्रम में बौद्ध धर्म से जुड़ीं प्रतिज्ञाएं दोहराई थीं. कथित तौर पर इनमें ‘हिंदू देवी-देवताओं की पूजा न करने’ की शपथ शामिल थी. बीजेपी ने आरोप लगाया कि कार्यक्रम में हिंदू देवी-देवताओं का अपमान किया गया है.
इसे लेकर विवाद छिड़ा और राजेंद्र पाल गौतम ने इस्तीफ़ा दे दिया. राजेंद्र पाल गौतम ने कहा था कि ‘बीजेपी की गंदी राजनीति से आहत होकर इस्तीफ़ा दे रहा हूं.’ कुछ दिन बाद गौतम ने आम आदमी पार्टी भी छोड़ दी थी.
इसके बाद अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले राज कुमार आनंद को उनकी जगह मंत्री बनाया गया. डेढ़ साल के भीतर राज कुमार आनंद ने भी मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. अब राज कुमार आनंद पटेल नगर सीट से बीजेपी के उम्मीदवार हैं.
बीबीसी से बातचीत में राजेंद्र पाल गौतम सवाल उठाते हैं, “आप के राष्ट्रीय स्तर पर चार पद हैं. राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल बनिया, राष्ट्रीय महासचिव पंकज गुप्ता बनिया, राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष एनडी गुप्ता बनिया और राष्ट्रीय संगठन महासचिव ब्राह्मण हैं. आप ने दिल्ली और पंजाब में एससी के वोट से चुनाव जीता है. केजरीवाल ने अब तक दिल्ली और पंजाब से 13 राज्यसभा सांसद भेजे हैं. इनमें एक भी दलित नहीं है. फिर आम आदमी पार्टी में दलित लीडरशिप कहां है?”
वर्तमान में दिल्ली कैबिनेट में मुकेश अहलावत दलित मंत्री हैं और सुल्तानपुर माजरा सीट से प्रत्याशी हैं.
अरविंद केजरीवाल अक़्सर ख़ुद के आंबेडकरवादी होने का दावा करते हैं. जब संसद में दिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आंबेडकर वाले बयान पर विवाद हुआ था तब आम आदमी पार्टी ने इसे मुद्दा बनाया था.
वाल्मीकि मंदिर के पास जनसभा में उन्होंने अमित शाह के बयान पर पलटवार किया. केजरीवाल ने कहा, “अमित शाह ने जिस टोन में बाबासाहेब के ऊपर बयान दिया था. उससे लग रहा था कि उनके भीतर नफ़रत भरी पड़ी है. मैं आंबेडकर जी का सिर्फ़ फै़न नहीं हूं. मैं उनका भक्त हूं भक्त.”
राखी बिड़लान 2013 से मंगोलपुरी सीट से विधायक हैं और पार्टी का बड़ा दलित चेहरा हैं. राखी को इस बार मंगोलपुरी की जगह मादीपुर से टिकट दिया गया है.
पार्टी में दलित प्रतिनिधित्व के सवाल पर राखी बिड़लान कहती हैं, “अगर दलित हमारी पार्टी में नहीं रहते तो उन्हें मंत्री तो नहीं बनाया जाता न. मैं ख़ुद दलित हूं. मंत्री रह चुकी हूं, डिप्टी स्पीकर हूं और चौथा विधानसभा चुनाव लड़ रही हूं. जिनमें ख़ामियां हैं उन्हें आम आदमी पार्टी से दिक़्क़त होती है.”
दिल्ली में 17 प्रतिशत और पंजाब में 32 फ़ीसद दलित हैं. इन राज्यों में क्या पार्टी को कम से कम दलित डिप्टी सीएम नहीं बनाना चाहिए?
इस सवाल पर राखी कहती हैं, “दलित टॉप पोस्ट पर हैं. पंजाब के वित्त मंत्री हरपाल सिंह चीमा दलित हैं. मैं ख़ुद दलित समाज से आती हूं.”
दलित वोटरों पर सबकी नज़र

दिसंबर के महीने में अमित शाह ने संसद में अपने भाषण के दौरान डॉ. भीमराव आंबेडकर का ज़िक्र किया. इसके एक हिस्से पर विवाद हुआ. इसके बाद संसद से लेकर सड़क तक इस बयान पर राजनीति हुई.
करोल बाग से बीजेपी उम्मीदवार दुष्यंत पाल गौतम कहते हैं, “अमित शाह के बयान से चुनाव पर कोई असर नहीं होगा. उन्होंने कुछ ग़लत नहीं कहा था. हम दलितों के बीच में रहते हैं. बीजेपी ने अपने संगठन में भी उनके लिए आरक्षण रखा है.”
बीजेपी पिछले दो चुनाव में 12 में से एक भी आरक्षित सीट नहीं जीत पाई है. दिसंबर से पार्टी दलितों के प्रभाव वाली सीटों पर ‘अनुसूचित जाति स्वाभिमान सम्मेलन’ कर रही है.
रिज़र्व सीटें 12 हैं लेकिन बीजेपी वाले एनडीए गठबंधन ने 14 दलित उम्मीदवार उतारे हैं. पार्टी ने दो सामान्य सीटों पर दलित नेताओं को टिकट दिया है. बीजेपी ने दीप्ति इंदौरा को मटिया महल और कमल बागड़ी को बल्लीमारान से चुनावी मैदान में उतारा है. एक सुरक्षित सीट देवली लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के हिस्से आई है.
बीजेपी के घोषणापत्र में दलितों के लिए अलग से स्कॉलरशिप देने का वादा किया गया है. इसके तहत दलित छात्रों को तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के लिए एक हज़ार रुपये प्रति महीना दिए जाएंगे.
कांग्रेस ने 13 दलित उम्मीदवारों को टिकट दिया है. पार्टी ने सामान्य सीट नरेला पर दलित समाज से आने वालीं अरुणा कुमारी को उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस के कार्यक्रमों में मंच पर आंबेडकर की तस्वीर प्रमुखता से दिखाई दे रही है.
लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी संविधान की प्रति दिखाकर दलित मतदाताओं से अपील कर रहे थे. यह सिलसिला दिल्ली चुनाव में भी जारी है.
आम आदमी पार्टी ने सिर्फ़ आरक्षित सीटों पर 12 दलित उम्मीदवारों को टिकट दिया है. दिसंबर में अरविंद केजरीवाल ने दलित छात्रों के लिए आंबेडकर स्कॉलरशिप की घोषणा की थी. इस स्कॉलरशिप के तहत विदेश की यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र का पूरा ख़र्च दिल्ली सरकार उठाएगी.
21 जनवरी को धोबी समाज के नेताओं के साथ प्रेस वार्ता करते हुए केजरीवाल ने कहा, “हमारी सरकार बनने पर दिल्ली सरकार धोबी समुदाय कल्याण बोर्ड का गठन करेगी. ये बोर्ड धोबी समाज की समस्याओं का समाधान करेगा.”
पार्टियों के वादे और बयानबाज़ी से इतर दलित समाज के मतदाता की राय क्या है?
दया बस्ती निवासी ब्रह्मानंद बताते हैं, “दलित चेहरा तो पेश करो. दलित का नाम भी आना चाहिए. दलित के वोटों से आप प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनते हो. तो दलित कहां रहता है. उसका तो कोई मसीहा नहीं है.”