
तमाम अहले-ईमान को ईद-ए-मिलादुन्नबी की दिली मुबारकबाद!
यह दिन हमारे प्यारे नबी (स.अ.व.) की विलादत-ए-पाक का जश्न है, जिसे हर मोमिन को पूरी शिद्दत और मोहब्बत के साथ मनाना चाहिए। हमारे नबी (स.अ.व.) का एहसान इस उम्मत पर इतना है कि हम और हमारी आने वाली नस्लें मिलकर भी इसे चुका नहीं सकतीं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इस जश्न को उस शान के मुताबिक मना रहे हैं, जो हमारे आका (स.अ.व.) की सुन्नत और तालीमात मांगती हैं?
जुलूस की हकीकत: रूहानियत या दिखावा?
मुंबई के घाटकोपर-पार्कसाइट में सालों से ईद-ए-मिलादुन्नबी का जुलूस बड़ी धूमधाम से निकलता है। यह जश्न-ए-पाक हर मोमिन के दिल को सुकून देता है, लेकिन क्या हम इस जश्न को सही मायनों में मनाते हैं? उलेमा और मुफ्ती हज़रात बार-बार नसीहत करते हैं कि जुलूस में ढोल-ताशे, डीजे, और गैर-शरई हरकतों से परहेज़ करें। दुनिया की निगाहें हम पर होती हैं, और हमें अपने नबी (स.अ.व.) की सुन्नत को बुलंद करना चाहिए। मगर क्या हम इन नसीहतों पर अमल करते हैं? जुलूस में अक्सर वह सब होता है, जो हमारे आका (स.अ.व.) ने मना किया—चाहे वो माँ-बहनों की बेपर्दगी हो, दूसरों को तकलीफ देना हो, या गैर-शरई रिवायात को बढ़ावा देना हो। क्या यह सब हमारे नबी (स.अ.व.) की मोहब्बत का इज़हार है? क्या यह जश्न उनकी तालीमात की तौहीन नहीं करता?
सियासत की चमक: जुलूस या मार्केटिंग?
पार्कसाइट के जुलूस में एक और मसला है, जो दिल को बेचैन करता है। यह जश्न-ए-विलादत कब सियासी मंच बन गया? जुलूस के अगुवा (सदर-ए-जुलूस) अक्सर किसी सियासी पार्टी से ताल्लुक रखते हैं। स्टेज पर खड़े होकर सियासी नारे लगाना, अपनी पार्टी की चमक बढ़ाना—क्या यह जुलूस का मकसद है? क्या यह किसी सियासी पार्टी का मार्केटिंग कैंपेन है? क्या इस जुलूस में दूसरी पार्टियों से ताल्लुक रखने वाले मुसलमान शामिल नहीं होते? पार्कसाइट में जुलूस की तैयारियों में यह तय होता है कि “सदर-ए-जुलूस की गाड़ी” में कौन खड़ा होगा। क्या यह जगह सियासी रसूख या पैसे के बल पर मिलती है? जो ज़्यादा खर्च करता है, क्या उसे “VIP गाड़ी” में जगह दी जाती है? हाल में एक नया सियासी चेहरा पार्कसाइट की सियासत में उभरा है। क्या इस बार उसे जुलूस में खास जगह देकर उसकी सियासी पारी शुरू करने का मौका दिया जाएगा? यह सवाल हर उस शख्स के दिल में है, जो इस जश्न की रूहानियत को बचाना चाहता है।
असली जश्न का तरीका
हम जिनके मिलाद का जश्न मना रहे हैं, उनके बारे में सुना है कि जब वो रास्तों से गुजरते थे, तो उनकी अदा पर लोग कलमा पढ़ लेते थे। उनकी ज़िंदगी सादगी, शांति और मोहब्बत का पैगाम थी। लेकिन आज हमारा जुलूस कैसा है? शोर-शराबा, गंदगी, और दूसरों को तकलीफ—क्या यही हमारा जश्न-ए-मिलाद है? महाराष्ट्र के कई इलाकों में मोमिन सादगी से, दरूद और नात पढ़ते हुए, पैदल जुलूस निकालते हैं। यही असली तरीका है। अगर हम अपने जुलूस को रूहानी रौशनी और दिली मोहब्बत से सजाएँ, तो न सिर्फ हमारा जश्न शानदार होगा, बल्कि लॉ एंड ऑर्डर वाले भी कहेंगे कि मुसलमानों का जुलूस उसी दिन निकले, क्योंकि उसमें शांति और अमन का पैगाम होता है।
हकीकत बोलने की हिम्मत
हमें पता है कि यह लेख कुछ लोगों को नागवार गुज़रेगा। सियासी नुमाइंदों के चमचे हमारे किरदार पर उँगलियाँ उठाएँगे। मगर हम चुप नहीं रहेंगे। मुसलमानों को जो नुकसान हो रहा है, वो इन्हीं स्वयंभू “नुमाइंदों” और उनके चमचों की वजह से है। आज का पढ़ा-लिखा नौजवान और इस्लाम की तालीम को समझने वाले लोग यह सब देख रहे हैं, लेकिन डर या दबाव की वजह से खुलकर नहीं बोलते। हमने वही लिखा, जो उनके दिलों में है।
बदलाव का रास्ता
बेशक, ईद-ए-मिलाद का जुलूस होना चाहिए, मगर रूहानी रौशनी और शरई उसूलों के साथ। उलेमा को चाहिए कि वो सियासी दबाव से ऊपर उठकर बेबाकी से हकीकत बयान करें। जुलूस की कमेटियों को चाहिए कि वो पारदर्शिता और शरीयत का ख्याल रखें। और हम सबको चाहिए कि हम अपने जश्न को सियासत की चमक से बचाएँ।
आखिरी बात
कई लोग सवाल करेंगे कि यह मशवरे जुलूस की मीटिंग में क्यों नहीं रखे गए? जवाब यह है कि बात वहाँ रखी जाती है, जहाँ सुनने की ताकत हो और अमल की नीयत हो। अगर मीटिंग सिर्फ़ औपचारिकता हो और असहमति की आवाज़ को चमचे दबा दें, तो वहाँ हक़ की बात कैसे रखी जाए? इस ईद-ए-मिलादुन्नबी पर हमने कुछ बातें आपके सामने रखीं। यह सही हैं या गलत, इसका फैसला आप पर छोड़ते हैं। अगर हमारी सोच में फासला है, तो भी हमारी मंशा समाज की भलाई है। अगर कोई गलती हुई, तो उम्मत-ए-मोहम्मदिया से माफी माँगते हैं।
“अपने भी ख़फ़ा मुझसे हैं, बेगाने भी नाखुश,
मैं ज़हर-ए-हलाहल को कभी कह न सका कंद।”
—अल्लामा इकबाल