
मुंबई, 8 सितम्बर 2025: घाटकोपर-विक्रोली के पार्कसाइट इलाके में ईद-ए-मिलादुन्नबी का जुलूस निकला। पच्चीस हज़ार लोगों और सौ से ज़्यादा गाड़ियों के साथ यह जुलूस नबी-ए-पाक (स.अ.व.) की विलादत का जश्न मनाने के लिए निकला था। लेकिन नज़ारा देखकर हर कोई यही सोचने लगा कि यह जुलूस आखिर किसका था—नबी (स.अ.व.) की मोहब्बत का या फिर नेताओं की सियासी चमक का?
Hashtag Truth ने अपने पिछले आर्टिकल में साफ़ कहा था कि इस बार विक्रोली पार्कसाइट के जुलूस में VIP गाड़ी पर नया चुनावी उम्मीदवार नज़र आएगा। और यही हुआ। सबने अपनी आँखों से देखा कि उद्धव बालासाहेब ठाकरे शिवसेना पार्टी से बीएमसी चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे इमरान शेख जी VIP गाड़ी में खड़े थे। वहीं, जो चेहरे पहले इस गाड़ी में सवार होते थे, वे इस बार दिखाई ही नहीं दिए। यह नज़ारा देखकर लोगों के मन में और भी सवाल उठने लगे कि क्या अब यह जुलूस चुनावी खेल का हिस्सा बन चुका है?
देखने वालों ने यह भी बताया कि जब VIP गाड़ी पूर्व नगरसेवक हारुन खान जी के मंच के पास पहुँची तो उन्हें इशारों-इशारों में गाड़ी में चढ़ने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया। अब उन्होंने गाड़ी में चढ़ने से एतराज़ क्यों किया, यह तो समझने वाली बात है। मगर सवाल और बड़ा है—आखिर चुनाव के दौर में ईद-ए-मिलाद के जुलूस की VIP गाड़ी पर हमेशा चुनाव लड़ने वाले दावेदार ही क्यों दिखाई देते हैं? क्या यह कोई नया “क्राइटेरिया” या “एलीजिबिलिटी” बन गया है?

पिछले वर्षों तक पूर्व नगरसेवक हारुन खान जी और सिराज शेख जी (राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी, शरद पवार गट ), दोनों, विक्रोली पार्कसाइट के आग़ाज़ से लेकर आख़िरी पड़ाव तक इस जुलूस की VIP गाड़ी का हिस्सा रहे हैं। इस बार नया चेहरा दिखा और हो सकता है अगली बार कोई और नया चेहरा नज़र आए। ज़ाहिर है, चुनाव के मुहाने पर नेताओं को इस VIP गाड़ी में बिठाकर जनता को यह मैसेज देने की कोशिश होती है कि “देखो, यही तुम्हारे अगले चुनावी उम्मीदवार हैं जिन्हें हमने समर्थन दिया है।” और इसी बहाने एक ख़ास समाज को भावनात्मक रूप से प्रभावित करने की चाल चली जाती है।
हर साल की तरह इस बार भी VIP गाड़ी पर बैठने वालों को लेकर घमासान रहा। पुराने दावेदारों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। किसी को ओपन जीप में शामिल होना पड़ा, किसी को पैदल चलना पड़ा। लेकिन जनता के बीच यह नज़ारा किसी ताक़त के प्रदर्शन से ज़्यादा एक उलझन का सबब बना। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह रूहानी जुलूस क्यों बार-बार नेताओं की रस्साकशी का अखाड़ा बनता जा रहा है।
जुलूस से एक दिन पहले ही पार्कसाइट का माहौल पोस्टरों और बैनरों से गरमा गया था। हर गली और चौराहे पर अलग-अलग चेहरों के पोस्टर टंगे थे। नतीजा यह हुआ कि आम लोग हैरत में पड़ गए कि आखिर यह जश्न मोहब्बत का है या चुनावी पोस्टरबाज़ी का। कुछ जगहों पर हल्की कहासुनी भी हुई, लेकिन पुलिस की सख़्ती से हालात संभल गए।
असल सवाल यही है कि यह जुलूस किसका पैग़ाम दे रहा है। हमारे प्यारे नबी (स.अ.व.) की ज़िंदगी इंसानियत, मोहब्बत और सादगी की मिसाल है। जश्न-ए-मिलाद का मक़सद होना चाहिए था दरूद, नात और भाईचारे का इज़हार। लेकिन यहाँ तस्वीर कुछ और ही बयान कर रही है। जनता भी अब कन्फ्यूज़ है कि क्या यह जुलूस वाकई नबी (स.अ.व.) की मोहब्बत का जश्न है या फिर नेताओं के बीच ताक़त दिखाने का खेल।
महाराष्ट्र के कई शहरों और गाँवों में आज भी जुलूस सादगी और रूहानियत के साथ निकलते हैं—लोग पैदल चलते हैं, दरूद पढ़ते हैं और मोहब्बत का पैग़ाम फैलाते हैं। अगर पार्कसाइट का जुलूस भी उसी सादगी से निकलता तो इसका असर दुनिया तक जाता। मगर अफसोस, यह मौका भी राजनीति की भेंट चढ़ गया।
आज ज़रूरत है कि इस जुलूस को सियासी गंदगी से पाक रखा जाए। कमेटियों को पारदर्शिता अपनानी चाहिए, उलेमा को हक़ बयान करना चाहिए और जनता को यह सोचना चाहिए कि आखिर हम किस चीज़ का हिस्सा बन रहे हैं। हमारी खामोशी ने इन हालात को जन्म दिया है और अगर हम यूँ ही चुप रहे तो आने वाले वक्त में यह जश्न सिर्फ नाम का रह जाएगा।
“जश्न-ए-मिलाद था मोहब्बत का पैग़ाम,
मगर सियासत ने बना दिया इसे इश्तिहार-ए-आम।
नबी की राह है सादगी और इंसानियत,
हमने बदल दी इसे चमक-धमक और सियासत।”
अल्लाह हमें अपने प्यारे नबी (स.अ.व.) की राह पर चलने और हक़ बोलने की तौफ़ीक़ दे। अगर इस लेख में कोई कमी या किसी को कुछ गलती लग रही हो तो हम इसपर इस्लाह की बात कर सकते है बाकी कुछ बाते रह गई हो तो उम्मत-ए-मोहम्मदिया से माफी।